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*पर्यावरण और हमारा समुदाय*

आज पर्यावरण दिवस है, इस अवसर पर कुछ लोग पेड़ लगा रहे हैं तो सरकार भी करोड़ों पेड़ लगवा रही है। हम तो पेड़ लगाकर कोशिश कर ही रहे हैं पर हमारे पुरखों ने भी पर्यावरण के अनुकूल धुलाई (रेह मिट्टी से धुलाई) की अद्भुत और अकल्पनीय तकनीक और साबुन (रेह) खोजा लेकिन साजिशन उसे ज्ञान/महत्वपूर्ण खोज नहीं माना गया। उनकी यह खोज भी महत्वपूर्ण साबित हो सकती है बस उस पर थोड़ा शोध करने की आवश्यकता है कि वह वर्तमान दौर में पहने जाने वाले कपड़ों को धोने में कैसे सार्थक हो सकती है। वैसे यह रेह मिट्टी से ही प्राप्त होती है, इससे कपड़ा धुलने पर तालाब या नदी की तली में बैठ जाती है, जिसे निकालकर गाद/गिलावा के रूप में दीवारों पर लगाने व द्वार को ऊंचा करने के काम में लाते थे। इससे कोई प्रदूषण भी नहीं फैलता। यदि इसे परिमार्जित और परिष्कृत किया जा सके तो धुलाई रसायनों के कारण नदियों और झीलों में उठने वाले झाग (जो कि एक गंभीर समस्या है) से काफी हद तक निजात मिल सकती है। आज से 15-16 वर्ष पूर्व में भी यह प्रयोग में लाई जाती थी। मैने अपने शोध के दौरान भी मातपुर (मनौरी के पास) में लोगों को रेह से कपड़े धुलते हुए पाया था। आज तक तमाम तरह के धुलाई रसायन बाजार में आ चुके हैं जिनमें फॉस्फेट की मात्रा तय मानक से अधिक होती ही जिसके कारण तालाबों, झीलों, नदियों आदि जलस्रोतों में झाग की समस्या देखी जा सकती है। यह केवल नदियों आदि जलस्रोतों में धोबियों द्वारा धोए जाने वाले कपड़ों के कारण ही नहीं होता बल्कि बड़ी-बड़ी औद्योगिक लॉन्ड्री से निकलने वाले बहि:स्राव के कारण भी होता है पर उनको दोष न देकर केवल धोबियों को ही दोषी मानकर नदियों के किनारे पर कपड़ा धोने से रोक दिया जाता है। रेह का उपयोग केवल कपड़े धोने में ही नहीं बल्कि खाद्य तेलों को रिफाइन करने के अतिरिक्त चूड़ी उद्योग आदि में भी इस्तेमाल किए जाने के प्रमाण मिले हैं। रोम में धोबियों द्वारा इसी रेह से कपड़े धुलने की बड़ी बड़ी कार्यशालाओं का भी प्रमाण मिला है। इस तरह से हमारे पुरखों ने एक साबुन खोज जो शायद सर्वदा पर्यावरण के अनुकूल रहेगा। आज पर्यावरण दिवस है, इस अवसर पर हमारे दोनों बच्चों ने भी इलाहाबाद स्थित आवास पर गमले में 1-1 पेड़ लगाया। हालांकि अभी मई में ही भतीजी प्रतीक्षा और दोनों बेटे तेजस व श्रेयस ने गांव में 1-1 पेड़ लगाया था। हम लोगों ने घर में पड़ने वाली शादियों और जन्मदिन व स्मृति दिवस पर वृक्षारोपण की शुरुआत भतीजे प्रियांशू के पहले जन्मदिन (2008) से ही की थी। हमें वृक्षारोपण के साथ-साथ जंगलों को तबाह होने से भी बचाना चाहिए क्योंकि भारत का संविधान सभी को सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक न्याय देने की गारंटी देता है, जिसकी सुरक्षा करना राज्य की जिम्मेदारी है। जल जंगल जमीन की सुरक्षा और संरक्षण करना सिर्फ आदिवासियों का ही काम नहीं है अपितु देश की समस्त आवाम का कर्तव्य है। सरकार को चाहिए कि प्रकृति प्रेमी आदिवासियों के हक-हुक़ूक़ की रक्षा करे। हमारी जिम्मेदारी यह है कि हमें जितना अपने पूर्वजों से मिला है अगर उससे अधिक नहीं तो कम से कम उतना अवश्य अपनी आने वाली पीढ़ियों को सौंप सकें। *नरेन्द्र दिवाकर* मो. 9839675023

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