*सक्षम और सशक्त सामाजिक-राजनीतिक नेतृत्व समय की जरूरत*
साथियों
अगर हम सफाई में लगी परंपरागत जातियों को देखें तो पाएंगे कि 2-3 जातियां ही ऐसी हैं जो आज भी अपने परंपरागत पेशे में लगी हैं। आज भी ये जातियां ही सही मायने में समाज सेवा करती हैं अन्य कोई नहीं भले ही चाहे कोई समाज सेवा का तमगा लिए या समाज सेवी का लबादा ओढ़े घूमता रहे। भंगी या बाल्मीकि जाति मनुष्य के मल-मूत्र की सफाई करती है तो धोबी जाति मनुष्यों के कपड़े धोने का काम करती है। यही जातियां सम्पूर्ण समाज को निरोग रखने में मदद करते हैं। परंतु धोबी जाति को इन सब में बहुत अधिक मेहनत करनी पड़ती है क्योंकि उसका काम सबकी अपेक्षा ज्यादा पेंचीदा और मेहनत वाला है। भंगी या बाल्मीकि जाति या अन्य इसी तरह की जातियों के काम का समय निर्धारित है जबकि धोबी के काम का कोई समय निर्धारित नहीं है उसे प्रायः 18-20 घंटे काम करने पड़ते हैं तब जाकर कहीं उसके घर का चूल्हा जलता है। बावजूद इसके सरकारें भी भंगियों के लिए ही पुनर्वास आदि सहित कई सुविधाओं का प्रावधान कर चुकी/रही हैं, पर इनके द्वारा धोबियों के लिए ऐसी कोई कल्याणकारी योजनाओं (चंद प्रयासों को छोड़कर) को अब तक क्रियान्वित नहीं किया जा सका है। इसका मतलब यह नहीं कि मैं बाल्मीकि समाज या जाति के लोगों के योगदान को नकार रहा हूँ या उनके कल्याण हेतु किए गए प्रयासों को गलत ठहरा रहा हूँ और नकारा या गलत ठहराया भी कैसे जा सकता है क्योंकि हर साल लगभग पच्चीस हजार लोग मल-मूत्र साफ करते-करते काल के गाल में समा जाते हैं, ये वे आंकड़े हैं जो सुर्खियों में आ जाते हैं, इन आंकड़ों की संख्या इसकी दूनी या अधिक हो सकती है यदि सुर्खियों में न आने वाले आकड़ों को जोड़ दिया जाय तो।
मेरी निजी जानकारी में धोबियों के लिए उत्तर प्रदेश में लांड्री और ड्राइक्लीनिंग योजना और दिल्ली में पक्के थड़े की योजना जैसी योजनाएं ही संचालित हैं। मध्यप्रदेश में वस्त्र स्वच्छता कल्याण बोर्ड का गठन तो हुआ पर मात्र कागजों पर। यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि यह योजना या बोर्ड भी हमारी आपसी खींचतान के कारण अधर में लटका हुआ है। केंद्रीय स्तर पर ऐसी किसी योजना का प्रावधान नहीं है जो धोबियों के कल्याण या पुनर्वास हेतु चलाई जा रही हो।
भंगी जहां मल-मूत्र मात्र ही साफ करता है वहीं धोबी कपड़ों में लगे मल-मूत्र के साथ ही साथ खतरनाक तथा संक्रामक रोगों से पीड़ित मरीजों के कपड़े धोता है और संक्रमण मुक्त करता है, वह भी बिना किसी सुरक्षात्मक उपायों के। कपड़े चाहे मृत्यु के बाद के हों या बच्चों के जन्म के बाद के हों या माहवारी के बाद के हों या घरेलू और होटल या अस्पताल के हों सभी कपड़ों से संक्रमण का खतरा अधिक रहता है फिर लोगों के कपड़ों को तमाम संक्रमणों से मुक्त करने वालों की उपेक्षा सरकार की नजर में कोई गुस्ताखी नहीं बन पाई है और न ही समुदाय की नजरों में असंतोष का कारण। जबकि सरकार को चाहिए कि धोबियों के कल्याण हेतु मध्यप्रदेश की ही तर्ज पर सभी राज्यों में वस्त्र स्वच्छता कल्याण बोर्ड का गठन करने हेतु कानून बनाए और यह सुनिश्चित करे कि उसमें दो तिहाई पदाधिकारी/सदस्य धोबी जाति से हों जिसमें कपड़े धुलने वाले लोग भी शामिल हों। यदि इस तरह की योजनाओं का प्रावधान केंद्रीय और राज्य स्तर पर अब तक नहीं हो सका है तो यह धोबी समुदाय के लोगों की ही कमी है। आज भी इनमें न तो जाटवों/चमारों, बाल्मीकि/भंगियों और यादवों/अहिरों की तरह की सांगठनिक एकता और राजनीतिक लामबंदी है न ही मजबूत सामुदायिक संगठन हैं और न ही आर्थिक और राजनीतिक रूप से सशक्त संगठन। अधिकांश संगठनों का अपना कार्यालय तक नहीं है जहां से समुदाय की प्रगति और उत्थान के लिए कार्यक्रमों या अधिवेशनों का संचालन किया जा सके। न ही इन संगठनों के प्रतिबद्ध पत्रिकाएं या अखबार हैं जिसके जरिए ये अपने समाज के हर सदस्य तक अपनी पैठ मजबूत कर सकें। जो पाक्षिक या मासिक पत्र-पत्रिकाएं होती भी हैं उनमें फिजूल की खबरें ज्यादा रहती हैं, समुदाय से जुड़ी कम।
समुदाय की प्रगति में सक्षम राजनीतिक नेतृत्व का आभाव भी एक बड़ी बाधा है। कोई ऐसा सक्षम सामाजिक या राजनीतिक नेतृत्व नहीं है जो सभी संगठनों को एक साथ लेकर चल सके। पद पाने की होड़ लगी हुई है इसलिए राष्ट्रीय स्तर पर संगठनों की बाढ़ सी आ गई है। पर इन संगठनों का काम जमीन पर दिखाई नहीं देता। जब तक सक्षम और सशक्त सामाजिक-राजनीतिक नेतृत्व नहीं होगा तब तक न तो पुनर्वास संबंधी योजनाओं का निर्माण व प्रवर्तन संभव है और न ही लोकसभा या विधानसभाओं में अपनी मांगों को पुरजोर तरीकों से रख पाना।
*नरेन्द्र कुमार दिवाकर*
मो. 9839675023