क्या कोई अपने पैदा किए हुए बेटे को उपेक्षित करता है या फेंकता है❔
आपका जवाब होगा शायद नहीं।
पर हमने किया है ऐसा। हम अपने पुरखों के सम्पूर्ण सृष्टि पर उम्दा और बेजोड़ आविष्कार को अपनाए नहीं रह सके और हमेशा के लिए छोड़ दिया है या घृणित समझकर उसे अपने से अलग कर दिया है? हमें लगा था कि इसे हमारे अनपढ़ पुरखों ने खोजा था इसलिए ये कोई खोज नहीं है, हम मानते भी तो कैसे क्योंकि हमें हमेशा पढ़ाया गया है कि अविष्कार और खोज तो पश्चिम के लोग तथा तथाकथित उच्च जाति भारतीय ही करते हैं, और हम पढ़े लिखे हैं, इसलिए इसको छोड़ देने या अपने से अलग कर देने के बाद शायद देश में हमें सम्मान की नजरों से देखा जाएगा, तथाकथित उच्च जातियां हमें अपने पास बैठाएंगी और हमसे रोटी-बेटी का संबंध स्थापित करेंगी पर इतिहास गवाह है कि ऐसा न कभी हुआ है और शायद न भविष्य में होगा। क्योंकि वे जानती हैं कि जो अपनों का नहीं हुआ वह किसी का क्या होगा? आज उन्होंने केवल हमारे पेशे को अपनाया है कल वे हमारे पुरखों की खोजी गयी अमूल्य खोज को अपने नाम से पेटेंट करा लें तो कोई बड़ी बात न होगी। उन्होंने ही हमें उस पेशे को करने के लिए ‘बाध्य’ किया, पेशे को गंदा व घृणित बताया और हमें अछूत बनाया। इसी दौरान हमने दुनिया की ऐसी बेशकीमती चीज खोजी जिससे उसके इस्तेमाल करने से पहले और बाद में किसी प्रकार का कोई नुकसान नहीं है। उन्होंने हमें लगातार याद दिलाया कि आप घृणित काम करते हो, हम मानते रहे और करते भी रहे इसी दरम्यान उसने पेशे की अहमियत और उसकी जरूरत को समझा और वाशिंग मशीन जैसी एक छोटी सी चीज बनाकर हमारे पेशे पर कब्जा कर बैठा और हमने अपने द्वारा खोजी हुई बेशकीमती चीज के साथ साथ अपने पेशे को भी (लगभग) खो दिया। यह ध्यान रखिए कि उसने ऐसा साजिशन किया क्योंकि उसकी ही जाति के लोग भीख मांगकर खाते हैं, जिसे उसने वृत्ति अर्थात पेशा (भिक्षावृत्ति) माना लेकिन आज तक उसने उस पर कभी कोई टीका-टिप्पणी नहीं की, कोई आलोचना नहीं की। जबकि वे ही हमें सिखाते थे कि कर्म ही पूजा है।
उसने अपने तुच्छ खोज (जो निर्माण से लेकर अंत तक नुकसानदेह ही साबित हो रही है) से हमारी बेशकीमती खोज को भी हमें उपेक्षित करने के लिए मजबूर कर दिया (क्योंकि पेशा और वह खोज एक दूसरे के पूरक थे, और आवश्यकता हो अविष्कार की जननी है को हमारे पूर्वजों ने चरितार्थ किया)। आश्चर्य की बात नहीं होगी कि कुछ दिन बाद वह हमारी खोज का पेटेंट कराकर अपने नाम के साथ मार्केट में लांच कर दे, और हम बस हांथ मलते रहें। समाज वैज्ञानिक बद्रीनारायण कहते हैं कि “दलित जातियां इस भ्रम की शिकार हैं कि वे किस प्रकार आधुनिक राज्य से अपने परंपरागत पेशों का उसकी भाषा में मोलभाव कर पाएंगी और वे शिक्षा और आधुनिक बाजार तंत्र पर कौन सा रुख अख्तियार करेंगी। उनके परंपरागत पेशे नष्ट हो रहे हैं लेकिन वे राज्य की भाषा और उसकी राजनीति से परिचित नहीं हैं, इसलिए वे जनतांत्रिक हलके में अपने आपको दृश्यमान बनाने में अक्षम हैं।”
यहां यह ध्यान रखना भी जरूरी है कि हमने अब तक ऐसा कुछ नहीं किया जिससे हमारी आने वाली पीढियां हमें याद रख सकें। हां बस इसलिए जरूर याद करेंगी की हम अपने बेशकीमती खोज रेह जिसे फुलर्स अर्थ, धोबी डस्ट, धोबी साबुन के नाम से जाना जाता है, को संरक्षित न कर सके।
नरेन्द्र कुमार दिवाकर
मो. 9839675023