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*रेह अर्थात Fullers_earth*

मंझनपुर से वापस लौटते समय जब रास्ते में साथी *Mamta Narendra Diwakar* को ऊसर भूमि से निकलने वाली दुनिया के सबसे पर्यावरणानुकूल साबुन (रेह) और उसकी तमाम खूबियों के बारे में बताया तो वह अपने आपको रोक न सकीं और देखने व इकट्ठा करने का आग्रह किया। हालांकि अब इस जमीन को खेत में तब्दील कर लिया गया है और खाली ज़मीन न के बराबर है इसलिए अब रेह भी न के बराबर मिलती है क्योंकि खाली ज़मीन पर ही रेह फूटती है। आजकल मुल्तानी मिट्टी को भी फुलर्स अर्थ कहा जा रहा है। साथी ने तो जैसे-तैसे एकत्र कर लिया पर दुःख इस बात का है कि पहले अंग्रेजों फिर आज़ाद भारत की सरकारों की उपेक्षा के कारण दुनिया का सबसे बेहतर और पर्यावरण के अनुकूल व सर्वसुलभ साबुन भारत की धरती पर (शायद विदेशों में भी) संरक्षण की बाट जोह रहा है। Fuller's earth अर्थात रेह प्राकृतिक रूप से पाई जाने वाली ऐसी मिट्टी का है जिसमें वसा, ग्रीस या तेल से हुई अशुद्धियों या दूसरे रंग को सोखने की पर्याप्त क्षमता होती है। पहले बहुतायत में इसका उपयोग धोबी कपड़ों को धोने के लिए किया करते थे (लगभग 20-22 वर्ष पूर्व तक रेह से कपड़े धुलना आम बात थी। 2016 भी मैंने इससे कपड़े धुलते हुए देखा था)। केवल वे ही धोबी साबुन से कपड़े धुलते थे जिनका ग्राहक साबुन या सर्फ(पाउडर) दिया करते थे। यह बात तो तय है कि पर्यावरण के अनुकूल इस साबुन (रेह अर्थात फुलर्स अर्थ) के आविष्कार करने वाले धोबी ही हैं। इसीलिए इसे फुलर्स अर्थ अर्थात धोबी की मिट्टी कहा जाता है। जैसा कि प्रसिद्ध लेखक कांचा आइलैया जी ने भी लिखा है। ऐसा माना जाता है इसका नाम कपड़ा उद्योग से उत्पन्न हुआ, जिसमें कपड़ा बनाने वाले मजदूर (फुलर्स अर्थात धोबियों) ने कच्चे ऊन को पानी और महीन मिट्टी के मिश्रण में गूंथकर साफ किया, जो रेशों से तेल, गंदगी और अन्य दूषित पदार्थों को सोख लेता था।इसका उपयोग पेट्रोलियम उत्पादों, बिनौला और सोया तेल, अन्य वसा और तेलों को परिष्कृत और रंगहीन करने के लिए किया जाता है। इसकी अशुद्धियों को सोखने की शक्ति अधिक होती है, इसमें मौजूद डिग्रीजिंग एजेंट इसे व्यावसायिक रूप से महत्वपूर्ण बनाते हैं। रेह अर्थात फुलर्स अर्थ इंग्लैंड, जापान और फ्लोरिडा, जॉर्जिया, इलिनोइस और टेक्सास, यू.एस. के अतिरिक्त भारत में भी कई स्थानों पर पाई जाती है। यदि इस पर ध्यान दिया गया होता तो इससे बेहतर पर्यावरण के अनुकूल कोई साबुन (कपड़े धोने का) नहीं होता लेकिन ऊसर जमीनों को अनुपजाऊ मानकर भूमिसुधार कार्यक्रम चलाने के कारण भारत में रेह के तमाम स्रोतों को खत्म कर दिया गया। जबकि एक बेहतर कास्टिक के रूप में इसका प्रयोग किया जा सकता था/है। © *नरेन्द्र दिवाकर* मो. 9839675023 सुधवर, चायल, कौशाम्बी (उ. प्र.)

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