23 फरवरी को एक ऐसी सख्शियत की जयन्ती है जिन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन समाज की बेहतरी हेतु लगा दिया। अपने घर-परिवार की परवाह न करते हुए सारा समय समाज की सेवा में बिता दिया। वो सख्शियत हैं- संत गाडगे महाराज।
जिन महान विभूतियों पर हमें गर्व होना चाहिए, उनमें से एक हैं संत गाडगे महाराज। जिन्होंने अपने कार्यों और विचारों के माध्यम से देश के समक्ष एक अनुकरणीय और अतुलनीय उदाहरण प्रस्तुत किया। जिसकी आज भारत को नितांत आवश्यकता है। जिन्होंने स्वयं अशिक्षित रहते हुए भी शिक्षा पर अधिक ध्यान केंद्रित किया और बुद्धिवादी आंदोलन के प्रणेता बनकर उभरे। वे कर्मकाण्डवाद पाखंडवाद और जातिवाद के प्रबल विरोधी थे। महाराष्ट्र के दलित-बहुजन परंपरा की एक महत्वपूर्ण कड़ी संत गाडगे बाबा भूलेश्वरी(भुलवरी) नदी के किनारे स्थित ग्राम शेंडगांव तालुका अंजनगांव सुर्जी, जिला अमरावती, महाराष्ट्र में 23 फरवरी, 1876 को धोबी समुदाय के झिंगराजी जाणोरकर (जन्म 1850 ई.) और सखूबाई के घर पैदा हुए थे। इनका पूरा नाम देविदास डेबूजी जणोरकर था। इनके पिता झिंगराजी कपड़े धोने का काम करते थे। डेबूजी के बचपन में ही सन 1884 ई. में उनके पिताजी की मृत्यु हो गई थी। इसके बाद माता सखूबाई इन्हें लेकर अपने मायके मुर्तिजापुर तालुका के दापुरे गांव चली गईं। डेबू जी का पूरा बचपन मामा चंद्रभान के यहां ही बीता। सुबह तड़के उठकर गौशाला साफकर नाश्ता कर दोपहर के भोजन के लिए प्याज और रोटी रखकर गाय-भैंस-बैल-चराने के लिए ले जाते थे। इसके अतिरिक्त मामा के साथ खेती-बाड़ी में भी हाथ बंटाने लगे। पशुओं को चराना, नहलाना, सानी-पानी और गोबर-कूड़ा उठाने का काम भी करते थे। उनका विवाह 1892 ई में कमालपुर गांव के घनाजी खल्लारकर की बेटी कुंताबाई से हुआ। विवाह के बाद भी डेबू जी का भजन-कीर्तन मण्डली में जाने का सिलसिला जारी था। गाडगे बाबा और कुंताबाई को चार बच्चे थे, दो बेटी आलोकाबाई व कलावती और दो बेटे मुग्दल व गोविंदराव हुए।
डेबू जी 1905 तक परिवार के साथ रहे इस बीच समाज में व्याप्त कुरूतियां और समस्याएं उन्हें कचोटती रहीं इसलिए उन्होंने कुरूतियों को दूर करने और समाज की समस्याओं को कम करने हेतु कुछ करने के बारे में सोंचा और बुद्धवार, 1 फरवरी, 1905 ई. को रात्रि में माता के पैर के पास जाकर चुपचाप जमीन पर माथा टेककर हमेशा के लिए घर त्याग दिया। सामान के नाम पर हांथ में एक लाठी और एक गडगा था। तन पर फटे-पुराने कपड़ों के टुकड़े से बना एक वस्त्र भर था। उनकी इसी वेश-भूषा के कारण कई स्थानों पर उनके साथ दुर्व्यवहार भी हुआ। 1905 से लेकर 1917 तक 12 वर्ष वे एक साधक के रूप में रहे और देश के विभिन्न हिस्सों में घूम-घूम कर भजन, कीर्तन और जनसंपर्क करते रहे। 1907 में वे ऋणमोचन के मेले में पूर्णा नदी के किनारे घाट को सूखा करते हुए देखे गए। जब लोग नदी में स्नानकर ऊपर चढ़ रहे थे तो घाट के गीला हो जाने से लोग फिसलकर गिर जाते थे तो डेबूजी दूर से सूखी मिट्टी लाकर घाट पर डालकर सूखा कर रहे थे। शाम 5 बजे उन्होंने अभंग गाया, लोगों का मनोरंजन किया, अंत में बर्तन धोए और जगह साफकर खुद कहीं से मिली हुई भाकरी (रोटी) लेकर नदी के किनारे जाकर चटनी से खाने लगे। उन्हें ऐसा करते देखकर स्त्री-पुरुषों में उनके प्रति कृतज्ञता और आदर का भाव पैदा हुआ। 1908 ई. में उन्होंने पूर्णा नदी के तट पर घाट बनाकर तैयार किया। 1914 में ऋणमोचन में पहली धर्मशाला का निर्माण किया और 1917 में पंढरपूर की चोखामेला धर्मशाला, जिसे बनवाने में 1 लाख की राशि खर्च हुई थी, बनवाई जिसे बाद में बाबा साहब भीमराव अंबेडकर जी द्वारा स्थापित पिपुल्स एजुकेशन सोसाइटी को छात्रावास के लिए सौंप दिया था। उनके द्वारा बनवाए गए संस्थानों की सूची काफी लंबी है जिनको यहां दिया जाना संभव नहीं।
गाडगे बाबा ने अपना अंतिम कीर्तन 8 नवम्बर, 1956 को मुंबई में दिया था। इसके बाद 14 नवम्बर, 1956 को पंढरपूर में रात भर खड़े रहकर कीर्तन करते रहे। उसी दौरान बाबा ने कहा कि ‘यह उनकी अंतिम भेंट है।’ वे बीमार हुए और उन्हें मुंबई के सेंट जार्ज अस्पताल में भर्ती कराया गया। 6 दिसंबर, 1956 को जब वे अस्पताल से बाहर आए तो डॉ. बाबा साहब अंबेडकरके परिनिर्वाण कि सूचना मिली। उन्हें बहुत गहरा आघात पहुंचा। उनका स्वास्थ्य पुनः खराब हो गया और फिर गाडगे बाबा की मृत्यु अमरावती के वलगांव में पेढ़ी नदी के पुल पर से गुजरते समय 20 दिसंबर, 1956 को हुई। उनकी मृत्यु के बाद पूरा महाराष्ट्र शोक की लहर में डूब गया। जिस स्थान पर उन्होंने अंतिम सांस ली वहां पर सिकची परिवार ने गाडगे महाराज वृद्धाश्रम का निर्माण करवाया। इसी पेढ़ी नदी के तट पर गाडगे बाबा रिसर्च सेंटर बनकर तैयार हो चुका है जहां रहकर देश-विदेश के लोग गाडगे बाबा के कार्यों से संबंधित शोध भी कर सकेंगे। गाडगे बाबा अपने अनुयायियों से हमेशा कहते थे कि “कहीं पर भी मेरी मूर्ति, मेरी समाधि, मेरा स्मारक या मन्दिर नहीं बनवाना है। मेरा कार्य ही मेरा स्मारक है। जिस स्थान पर मेरी मृत्यु हो वहीं पर मेरा अंतिम संस्कार कर देना।” गाडगे बाबा की इच्छा के अनुरूप वहीं पर अंतिम संस्कार तो कर दिया गया लेकिन अमरावती में गाडगे महाराज समाधि मंदिर का निर्माण करवाया गया। इसी मंदिर के प्रांगण में एक विद्यालय भी संचालित होता है। जहां पर यह मंदिर स्थित है, उसे अब गाडगे नगर कहा जाता है। 1 मई, 1983 को अमरावती में संत गाडगे बाबा अमरावती विश्वविद्यालय की स्थापना की गई। 20 दिसंबर, 1998 को गाडगे बाबा के सम्मान में भारत सरकार ने एक डाक टिकट भी जारी किया।
गाडगे बाबा अपने उपदेशों, भजनों और कीर्तनों में बड़े ही सहज तरीके से अपनी शैली में एक कुशल अभिनेता की तरह अभिनय कर-कर के गूढ़ बात भी समझा देते थे। कई बार वे खुद ही सवाल करते और खुद ही जवाब भी देते। एक बार तिलक ने ‘अथनी’ पंढरपूर में ब्राह्मणों की एक सभा में, जिसमें संत गाडगे बाबा भी उपस्थित थे लेकिन तिलक जी को इस बात का पता नहीं था, संबोधित करते हुए कहा कि, “तेली, तांबोली और कुनबी, विधानमंडल में जाकर क्या हल चलाएंगे”? तिलक के ऐसा कहने का अर्थ यह था कि ब्राह्मणों से इतर लोगों को मनुस्मृति के अनुसार निर्धारित परंपरागत कार्य ही करना चाहिए, वे विधानमंडल में जाकर कुछ नहीं कर सकते। गाडगे बाबा भी उसी सभा में मौजूद थे, जब तिलक ने उन्हें देख लिया तो मार्गदर्शन करने के लिए अनुरोध किया तब गाडगे बाबा भी मना नहीं कर पाए और बोले कि “गलती मेरी है, मैं परीट, मैं धोबी, पीढ़ी-दर-पीढ़ी आपके कपड़े धोना मेरा काम है, मार्गदर्शन करना मेरी जाति का काम नहीं है। मैं मार्गदर्शन कैसे करूँ? गाडगेबाबा ने तिलक से एक और विनती भी की कि “हमें विधानमंडल में जाना है लेकिन हम ब्राह्मण नहीं हैं। आप कहते हैं कि ब्राह्मण के अलावा किसी को भी विधानमंडल में नहीं जाना चाहिए, इसीलिए तिलक महाराज, आप कुछ भी करो लेकिन हमें ब्राह्मण बना दो” गाडगे बाबा की बात सुनकर तिलक निरुत्तर हो गए।
गाडगे बाबा के द्वारा 60 से अधिक लोकोपयोगी संस्थाओं की स्थापना की गई तथा उनकी मृत्यु के बाद उनके द्वारा स्थापित (8 फरवरी, 1952) संस्था गाडगे बाबा मिशन, मुंबई ने भी 50 से अधिक छात्रावासों, आश्रमों, विद्यालयों, महिलाश्रमों, माध्यमिक विद्यालय, वृद्धाश्रम, परिश्रमालय, गौशाला, कुष्ठ आश्रम आदि की स्थापना की, जिनमें से अधिकांश संस्थाएं आज भी लोक कल्याणकारी कार्य कर रही हैं। गाडगे बाबा मिशन, मुंबई आज भी जनसेवा के प्रति तत्पर है। इसकी अनेक योजनाओं को सरकार का भी सहयोग मिलता है। गाडगे बाबा ने शिक्षा के क्षेत्र में उल्लेखनीय काम कर रही संस्थाओं को भी अच्छी खासी रकम दान में दी। वे स्कूली शिक्षा नहीं प्राप्त कर पाए परंतु वे शिक्षा के महत्व को जानते-समझते थे और शिक्षा के प्रति उनका विशेष लगाव था। इसलिए वे समाज के सभी तबकों के लोगों से अपने बच्चों शिक्षा दिलाने हेतु कहते थे।
गाडगे महाराज ने समाज की बेहतरी के लिए विभिन्न क्षेत्रों में कार्य किया जो उल्लेखनीय हैं। स्वच्छता उनका विशेष गुण था, इसलिए उन्होंने गांव-गांव जाकर स्वच्छता का अलख जगाया। उन्होंने कर्मकांड, अंधविश्वास और पाखण्डवाद की जमकर आलोचना की और बुद्धिवादी आंदोलन शुरू किया। शिक्षा हेतु उनके द्वारा किए गए कार्यों और उपदेशों पर चर्चा करना अति आवश्यक और महत्वपूर्ण जान पड़ता है।
बचपन में परिवार की आर्थिक स्थिति ठीक न होने और पिता जी के असमय गुजर जाने के कारण उनकी शिक्षा-दीक्षा नहीं हो सकी फिर भी वे शिक्षा के महत्व को भली-भांति जानते थे इसलिए उन्होंने शिक्षा पर इतना अधिक ध्यान दिया कि विद्यालय/छात्रावास और धर्मशालाएं बनवाईं साथ ही ऐसी संस्थाओं का गठन किया जिनके जरिए शिक्षा पर काफी काम किया जा रहा है। गाडगे महाराज जी का शिक्षा के प्रति जो लगाव था वह इसी एक कथन- ‘अगर पैसों की तंगी है, तो खाने के बर्तन बेच दो पर अपने बच्चों को शिक्षा दिलाए बिना मत रखो’ से पता चलता है। व्यक्ति भले मर जाय पर विचार कभी मरते नहीं। उनके द्वारा दिए गए विचार/उपदेशात्मक वाक्य आज भी हमारे लिए प्रेरणा स्रोत हैं। जो निम्न हैं-
मराठी, माली, तेली, नाई, धोबी, चमार, कोली, कुम्हार, लोहार, बेलदार, गोंड, अहीर, मांग, महार, आदि ये लोग क्यों गरीब रहे? इनके पास विद्या नहीं, जिनके पास विद्या नहीं उन्हें बैल की तरह ही खटना पड़ेगा, इसलिए इसे सुधारो। बच्चों को शिक्षा दो/दिलाओ, पैसे नहीं तो खाने की थाली बेंच दो, हाथ पर रोटी खाओ, बीवी के लिए काम दाम के कपड़े खरीदो लेकिन बच्चों को विद्यालय भेजे बिना न रहो।
विद्या बड़ा धन है, विद्या बड़ी चीज है, तुम्हारे पास विद्या नहीं थी तो मजदूरी मिली लेकिन यदि इस समय बच्चों को विद्या नहीं मिली तो तुम्हारे बच्चों की नौकरी लगने वाले नहीं है तो बूट पॉलिश करेंगे।
मारवाड़ी, गुजराती, ब्राह्मण आदि लोग घी-चीनी खाते हैं क्योंकि इनके घर जमा-पूंजी है, उनकी आमदनी या उत्पादन कितना है? खर्च कितना है? उन्हें मालूम है।
हम मराठी, तेली, नाई, माली, धोबी जमा खर्च (पूंजी जमा। करना) समझते नहीं। जनवरी में मज़ा करते हैं उर फरवरी वार्तालाप करते बीतती है। काट कसर करो, घर में जमा खर्च रखना चाहिए। खुद विद्या ग्रहण करो और गरीबों की मदद करो, गरीब बच्चों को कपड़े दो, टोपी दो, पाटी (तख्ती) दो, नई कॉपी दो।
उन्होंने सुविधा संपन्न लोगों से कहा कि- अपने बच्चों को विलायत भेज कर पढ़वाने की इच्छा करते हो और गरीब बच्चों को एक-दो आने की कॉपी देने की बुद्धि आपके पास नहीं है तो आप मनुष्य नहीं हैं।
वह देवी-देवताओं से अधिक महत्व शिक्षा को देते थे तभी तो कहते थे कि- देवताओं के लिए पैसा खर्च न करो वही पैसा शिक्षा के लिए खर्च कीजिए। शराब का सेवन न करो उससे बचा हुआ पैसा होशियार विद्यार्थी को दो। धार्मिक कृत्य के लिए नहीं अपितु विद्या/शिक्षा प्राप्त करने के लिए पैसे खर्च करो। मंदिर विद्यालय से बड़ा नहीं इसलिए उदार होकर विद्यालय को दान दीजिए।
वे भक्ति के प्रचार-प्रसार की अपेक्षा शिक्षा के प्रचार-प्रसार को सर्वश्रेष्ठ मानते थे इसलिए उन्होंने कहा कि- भक्ति का प्रसार अच्छा नहीं, विद्या का प्रसार सर्वश्रेष्ठ है।
माता-पिता की आज्ञा मानो, घर-द्वार व गांव को स्वच्छ रखो, बालक-बालिकाओं को शिक्षा दीजिए, अंधे, अपंग और अनाथों को यथाशक्ति अन्न और वस्त्र दान करो।
शिक्षा से मनुष्य का जीवन फलता-फूलता है। इस संसार में हम क्यों आए हैं? हमें यह पता होना चाहिए। मेरा कार्य ही मेरा सच्चा स्मारक है।
अंधे, बीमार और विकलांग लोगों की सहायता मे अपना योगदान दो, और उनकी सहायता करो।
शराब बहुत से घरों की तबाही का कारण है इसीलिए गाडगे बाबा ने कहा है कि-जिस दारू ने करोड़पतियों का खाना खराब किया, राजपूतों को मरवा दिया, राजवाड़े वीरान हो गए, उस दारू के साए में खड़े मत रहो। जो दारू पिता है उसका खाना ख़राब हुए बिना नहीं रहता।
संत गाडगे बाबा के अनमोल विचार
कभी भी ऐसा कर्म ना करे जिससे दूसरों को तकलीफ हो और वह दुखी हो जाए।
भूखे को रोटी, प्यासे को पानी, वस्त्रहीन लोगों को कपड़ा और बेघर लोगों को आसरा देना ही ईश्वर सेवा है।
गरीब बच्चों की शिक्षा मे सहायता करो। गरीबों की उन्नति मे अपना योगदान दो।
गरीब, कमजोर, दुखी और निराश लोगों की मदद करना और उन्हे हिम्मत देना ही सच्चा धर्म है और ईश्वर भक्ति है।
मेरे मरने के बाद मेरी मूर्ति, स्मारक, समाधि या मंदिर मत बनाना।
जातीयता तोड़ने मे आपसी भाई चारे की संस्कृति विकसित करना आवश्यक है।
कर्ज लेकर शादी करना, त्योहार मनाना या कर्ज लेकर परंपराओ का पालन करना महापाप है।
इंसान को हमेशा सीधा-साधा जीवन बिताना चाहिए, शान शौकत इंसान को बर्बाद कर देती है।
गाय (गाय के बछड़े किसान के बहुत बड़े सहयोगी होते हैं) सुखी तो किसान सुखी, किसान सुखी तो संसार सुखी।
मनुष्यों का कोई खरा देवा है तो वह है उनके माता-पिता, उनकी सेवा करो। दान लेने के लिए हाथ न फैलाओ, दान देने के लिए हाथ फैलाओ। जिसने समय पर विजय प्राप्त कर लिया उसने संसार पर विजय प्राप्त कर लिया।
पत्थरों की पूजा करने में समय और शक्ति व्यर्थ न गवांओ। तीर्थ में देव नहीं है, पैसे का नाश है, जो तीर्थ में जाता है उसके पैसे का नाश होता है इसका कारण तीर्थ ही है।
देवालय में देव नहीं। देव कहां है? यह संसार देव है, संसार की ही सेवा करो, गरीबों पर दया करो। मनुष्य का धन तिजोरी नहीं, हीरे नहीं, गाड़ी नहीं, मनुष्य का धन कीर्ति है।
भूखे को भोजन
प्यासे को पानी
वस्त्रहीन को वस्त्र
बेघर को आसरा
गरीब बच्चे-बच्चियों को शिक्षा
रोगी, अंधे और अपाहिज़ को औषधि
निराश और दुःखी लोगों को हिम्मत
गरीब बालक-बालिकाओं की शादी
बेरोजगारों को रोजगार
मूक प्राणियों को अभयदान
प्रदान करें।
*नरेन्द्र दिवाकर* सुधवर, चायल, कौशांबी (उ. प्र.) मो. 9839675023